"राजीव गांधी युवा मित्रों का ऐतिहासिक संघर्ष: 72 दिनों तक बेरोजगारी के खिलाफ सरकार की चुप्पी और अमानवीयता पर सवाल"

राजीव गांधी युवा मित्र योजना के तहत 5000 युवाओं की नौकरी से छंटनी: सरकार का नकारात्मक कदम


राजस्थान में बेरोजगारी एक गंभीर मुद्दा बन चुका है, और जब राज्य सरकार ने राजीव गांधी युवा मित्र योजना के तहत काम कर रहे 5000 युवाओं को अचानक नौकरी से निकाल दिया, तो यह न केवल इन युवाओं के जीवन के साथ एक बड़ा धोखा था, बल्कि राज्य की सरकार की बेरुखी और उदासीनता को भी उजागर करता है। 


राज्य सरकार ने बेरोजगारी की समस्या को हल करने के वादे किए थे, लेकिन जब इन युवाओं को एक दिन अचानक नौकरी से हटा दिया गया, तो उनका भविष्य अंधकारमय हो गया। ये वे युवा थे, जिन्होंने अपनी नौकरी की उम्मीद में कठिन मेहनत की थी और अपनी रोजी-रोटी के लिए राज्य सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों में काम किया था। उनकी बेरोजगारी अब केवल एक व्यक्तिगत संकट नहीं रही, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक मुद्दा बन गया, जिसे अनदेखा करना सरकार के लिए खतरे की घंटी है।

सरकार का यह कदम यह साबित करता है कि जब युवा अपने अधिकारों की मांग करते हैं, तो उन्हें अनदेखा कर दिया जाता है। इस फैसले ने न केवल बेरोजगारी की समस्या को और बढ़ाया, बल्कि यह भी दर्शाया कि सरकार अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ रही है। क्या यह सरकार के लिए एक चेतावनी नहीं है कि युवाओं की पीड़ा को नजरअंदाज करना अब और नहीं सहा जाएगा?



क्या यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं थी कि इन 5000 युवाओं को नौकरी से नहीं निकाला जाता? जब ये युवा अपनी मेहनत से राज्य को आगे बढ़ाने में योगदान कर रहे थे, तो उन्हें अचानक बेरोजगार करने का क्या कारण था? यह सवाल अब राज्य सरकार से पूछा जाना चाहिए, और जब तक इन युवाओं को न्याय नहीं मिलता, तब तक जनता की आवाज़ को अनसुना नहीं किया जा सकता।

अब यह समय है कि सरकार इस चुप्पी को तोड़े और यह साबित करे कि वह युवाओं के संघर्ष को समझती है, और उनकी परेशानियों का समाधान करेगी।

72 दिनों तक लगातार आंदोलन: युवाओं की आवाज़ और सरकार की चुप्पी


राजस्थान के बेरोजगार युवाओं ने 72 दिनों तक शहीद स्मारक पर अपनी आवाज़ को बुलंद किया। यह आंदोलन केवल एक विरोध नहीं था, बल्कि सरकार की उदासीनता के खिलाफ एक गहरी चुनौती थी। जब हजारों युवा अपनी मांगों के लिए सड़क पर थे, तब सरकार की चुप्पी ने कई सवाल खड़े किए।

इस आंदोलन का सबसे बड़ा मुद्दा था—बेरोजगारी। 72 दिनों तक लगातार प्रदर्शन करते हुए युवाओं ने सरकार से अपनी नौकरी की बहाली और रोजगार के अवसरों की मांग की। उनका संघर्ष केवल रोजगार पाने के लिए नहीं था, बल्कि यह एक बड़ा संदेश था कि जब सरकार अपने वादों से पीछे हटती है और जनता के मुद्दों को नजरअंदाज करती है, तो उसका परिणाम किस हद तक गंभीर हो सकता है।

यह आंदोलन इस बात का प्रतीक था कि बेरोजगार युवा अब चुप नहीं बैठ सकते। वे 72 दिनों तक केवल एक सवाल पूछते रहे: "हमारा भविष्य क्या होगा?" जब एक युवा वर्ग अपनी पहचान और भविष्य के लिए संघर्ष करता है, तो यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह इनकी आवाज़ सुने और उनके समस्याओं का समाधान निकाले।


72 दिनों तक सरकार की चुप्पी ने यह सिद्ध कर दिया कि वह अपनी जिम्मेदारियों से भाग रही है। क्या सरकार को यह एहसास नहीं हुआ कि लाखों युवा रोजगार की तलाश में हैं और उन्हें अब अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना पड़ा है? यह सवाल हर उस नेता से है जो जनता की समस्याओं से दूर हो चुका है।

सरकार को यह समझना होगा कि जब जनता सड़क पर उतरती है और अपना हक मांगती है, तो इसे अनदेखा करना किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए खतरे की घंटी हो सकती है। यह आंदोलन इस बात का संदेश है कि अगर सरकार अब भी चुप रही, तो आने वाले दिनों में यह आक्रोश और भी बढ़ सकता है।

दंडवत प्रदर्शन: जब शब्दों से ज्यादा आस्था बोलती है


जब सरकार ने बेरोजगार युवाओं की समस्याओं को अनदेखा किया, तो इन युवाओं ने अपनी आवाज़ उठाने का अनोखा तरीका अपनाया – दंडवत प्रदर्शन। यह प्रदर्शन केवल शारीरिक नहीं था, बल्कि यह उनकी गहरी आस्था, संघर्ष और अपनी मांगों के प्रति दृढ़ता का प्रतीक था।

दंडवत प्रदर्शन का मतलब था कि जब जनता के पास अपनी बात कहने का और कोई साधन नहीं बचता, तो वह भगवान से न्याय की गुहार लगाती है। यह एक ऐसा कदम था, जो सरकार को यह संदेश देने के लिए था कि बेरोजगार युवा अब और चुप नहीं बैठ सकते। वे अपना हक पाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे, चाहे वह शारीरिक कष्ट हो या मानसिक।

सरकार को यह समझना चाहिए था कि जब जनता अपनी मांगों को लेकर इस तरह के प्रतीकात्मक कदम उठाती है, तो यह केवल एक विरोध नहीं, बल्कि एक गहरी पीड़ा और आक्रोश का प्रतीक होता है। दंडवत प्रदर्शन ने यह दिखाया कि युवाओं के पास अब कोई और विकल्प नहीं बचा। वे न केवल अपनी बेरोजगारी के खिलाफ लड़ रहे थे, बल्कि सरकार के प्रति अपनी असंतुष्टि और आक्रोश को भी व्यक्त कर रहे थे।


क्या सरकार ने इन युवाओं की पीड़ा को महसूस किया? क्या यह सरकार का कर्तव्य नहीं था कि वह इन युवाओं की आवाज़ को सुनती और उनके लिए समाधान देती? जब ये युवा सरकार से अपने अधिकारों की मांग कर रहे थे, तब क्या यह सरकार का धर्म नहीं था कि वह उनकी आवाज़ को सम्मान देती?

सरकार को यह समझना चाहिए कि जब जनता इस तरह से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती है, तो उसे अनदेखा करना केवल राज्य की असफलता को ही दर्शाता है। अब समय आ गया है कि सरकार इस आंदोलन से कुछ सीखे और युवाओं के इस संघर्ष का समाधान निकाले।

अर्धनग्न प्रदर्शन: बेरोजगार युवाओं की बेबसी और सरकार की संवेदनहीनता


राजस्थान के बेरोजगार युवाओं ने जब अपने हक के लिए संघर्ष शुरू किया, तो उन्होंने अर्धनग्न प्रदर्शन जैसे साहसिक कदम उठाए। यह कदम केवल विरोध नहीं था, बल्कि यह युवाओं की गहरी निराशा और बेबसी का प्रतीक था। अर्धनग्न होकर प्रदर्शन करना न केवल एक शारीरिक चुनौती थी, बल्कि यह उनकी आत्मसम्मान, गरिमा और अपने अधिकारों की जिद का भी स्पष्ट संकेत था।

जब बेरोजगार युवा यह प्रदर्शन कर रहे थे, तब उनकी स्थिति स्पष्ट थी—वे किसी भी हालत में अपनी मांगों से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं थे। उनका संदेश था: "जब तक हमारी मांगें पूरी नहीं होतीं, हम अपनी गरिमा और आत्मसम्मान को दांव पर लगाने के लिए भी तैयार हैं।"

सरकार और प्रशासन को इस कदम से यह समझना चाहिए था कि जब सत्ता और शासन जनता के मुद्दों पर ध्यान नहीं देते, तो लोग अपनी आवाज़ को सुनाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अर्धनग्न प्रदर्शन ने यह दिखाया कि युवा वर्ग अपनी समस्याओं को लेकर कितने गंभीर हैं। यह एक चुनौती थी सरकार और प्रशासन के लिए कि वे इस चेतावनी को हल्के में न लें।


यह प्रदर्शन सरकार की संवेदनहीनता और बेरोजगारी के प्रति उसकी उदासीनता को उजागर करता है। बेरोजगार युवाओं ने अपनी गरिमा को दांव पर लगाकर यह साबित कर दिया कि वे अपनी मांगों से समझौता नहीं करेंगे। क्या सरकार को यह नहीं समझना चाहिए कि जब लोग अपनी आत्मसम्मान की आहुति दे देते हैं, तो यह सरकार के लिए गहरी चिंता का विषय होना चाहिए?

यह समय है कि सरकार अपनी चुप्पी तोड़े और बेरोजगारी के समाधान के लिए ठोस कदम उठाए। अगर सरकार अब भी नहीं जागी, तो यह आंदोलन और भी मजबूत हो सकता है और युवा वर्ग को एक बड़ा कदम उठाने के लिए प्रेरित कर सकता है।

मुर्गा बनकर प्रदर्शन: सरकार की बेरुखी पर व्यंग्य


राजस्थान के बेरोजगार युवाओं ने जब अपने हक के लिए आवाज़ उठाने का निर्णय लिया, तो उन्होंने मुर्गा बनकर प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन केवल एक अनोखा तरीका नहीं था, बल्कि सरकार और प्रशासन की बेरुखी और संवेदनहीनता पर एक तीखा व्यंग्य था। मुर्गा बनकर प्रदर्शन करना उस समय की परिस्थितियों को दर्शाता था, जब सरकार और नेताओं के लिए जनता की समस्याएं केवल मजाक बनकर रह गई थीं।

यह प्रदर्शन एक कड़ी चेतावनी थी कि सरकार और प्रशासन को अपने रवैये पर विचार करना होगा। जब सरकार जनता के मुद्दों को नजरअंदाज करती है और उन पर ध्यान नहीं देती, तो जनता अपने तरीके से अपनी आवाज़ उठाने के लिए बाध्य हो जाती है। मुर्गा बनकर प्रदर्शन करना यह दर्शाता है कि युवाओं के लिए उनकी मांगें मजाक नहीं थीं, बल्कि वे अपनी समस्याओं को लेकर गहरे संघर्ष में थे।


यह प्रदर्शन सीधे तौर पर सरकार को यह संदेश देता है कि जब वह अपनी चुप्पी बनाए रखती है और जनता के मुद्दों को नजरअंदाज करती है, तो जनता भी उन मुद्दों को मजाक के रूप में उठाने पर मजबूर हो जाती है। क्या सरकार को यह नहीं समझना चाहिए था कि यह स्थिति उनकी अव्यवस्था और राजनीतिक लापरवाही का परिणाम है?

मुर्गा बनकर प्रदर्शन ने यह साफ संदेश दिया कि अगर सरकार ने अपने रवैये को नहीं बदला, तो जनता अपना संघर्ष और तेज़ करेगी। सरकार को यह समझना होगा कि जनता अब किसी भी हाल में अपनी गरिमा और अधिकारों से समझौता नहीं करेगी। अब समय है कि सरकार तत्काल बेरोजगारी के मुद्दे को हल करे और युवाओं की मांगों को प्राथमिकता दे।

मुंडन प्रदर्शन: युवाओं की हताशा और सरकार के खिलाफ गहरी नाराज़गी


राजस्थान में बेरोजगार युवाओं ने जब देखा कि सरकार उनकी समस्याओं को अनदेखा कर रही है, तो उन्होंने अपनी पीड़ा और हताशा को एक अनोखे और चौंकाने वाले तरीके से प्रदर्शित किया—मुंडन प्रदर्शन। यह प्रदर्शन न केवल एक प्रतीकात्मक कदम था, बल्कि यह युवाओं की उस निराशा और गुस्से का संकेत था, जब उन्हें महसूस हुआ कि सरकार उनके अधिकारों के प्रति संवेदनहीन हो चुकी है।

मुंडन प्रदर्शन का उद्देश्य था—सरकार को यह समझाना कि जब किसी के पास कुछ खोने के लिए नहीं बचा होता, तो वह अपने सबसे कीमती चीज़, यानी अपनी पहचान और आत्म-सम्मान, को भी दांव पर लगाने के लिए तैयार हो जाता है। मुंडन करने से यह स्पष्ट हुआ कि युवाओं के पास अब कोई और विकल्प नहीं था। उनके लिए यह आंदोलन सिर्फ रोजगार की बहाली का नहीं, बल्कि अपनी गरिमा और उम्मीदों की रक्षा का था। जब सरकार ने बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दे को हल करने में ढिलाई बरती, तो युवाओं ने यह दिखा दिया कि उनके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं है, और वे अपनी आखिरी सांस तक अपनी आवाज़ उठाएंगे।


यह मुंडन प्रदर्शन सीधे सरकार को यह संदेश देता है कि जब सरकार अपनी जिम्मेदारियों से भागती है, तो जनता के पास अपने गुस्से और आक्रोश को व्यक्त करने के लिए ऐसे चरम कदम उठाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता। यह प्रदर्शन एक सशक्त चेतावनी था कि अगर सरकार ने जल्द ही बेरोजगारी के मसले को हल नहीं किया और युवाओं की मांगों पर ध्यान नहीं दिया, तो भविष्य में यह संघर्ष और भी तेज़ हो सकता है। सरकार को यह समझना चाहिए कि अब बेरोजगार युवा किसी भी हाल में अपनी आवाज़ को दबाने नहीं देंगे।

मुंडन प्रदर्शन ने यह साबित कर दिया कि युवाओं की आवाज़ को दबाना अब नामुमकिन है। अगर सरकार को इस आंदोलन का प्रभावी समाधान नहीं मिला, तो यह संघर्ष और बढ़ सकता है।

खून से पत्र लिखना: युवाओं का संघर्ष और सरकार के प्रति गहरी निराशा


राजस्थान के बेरोजगार युवाओं ने जब महसूस किया कि सरकार उनकी समस्याओं के प्रति बिल्कुल संवेदनहीन हो चुकी है, तो उन्होंने अपना दर्द और संघर्ष एक बेहद गंभीर और भयावह तरीके से व्यक्त किया—खून से पत्र लिखकर। यह कदम केवल एक प्रतीक नहीं था, बल्कि यह उनके अंदर की गहरी पीड़ा और संघर्ष का गवाह था। खून से लिखे गए पत्र ने यह साबित कर दिया कि जब जनता के पास और कोई रास्ता नहीं बचता, तो वह अपने सबसे गहरे अस्तित्व से अपनी आवाज़ उठाती है।

खून से लिखे गए पत्र का उद्देश्य था सरकार को यह समझाना कि अब यह संघर्ष केवल एक आंदोलन नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु का मामला बन चुका है। ये पत्र न केवल बेरोजगार युवाओं के आक्रोश को व्यक्त करते थे, बल्कि यह सरकार को एक कड़ा संदेश देते थे कि अगर उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हुआ, तो वे अपने अधिकारों के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।


यह खून से पत्र लिखना एक आखिरी चेतावनी थी—अगर सरकार ने तुरंत इस आंदोलन का हल नहीं निकाला, तो यह युवाओं का संघर्ष और भी हिंसक और उग्र रूप ले सकता था। खून से पत्र लिखने का यह कदम यह भी दिखाता है कि जब सरकार अपने नागरिकों के अधिकारों की अनदेखी करती है, तो वे अपनी पीड़ा को इस कदर व्यक्त करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। यह एक गहरी चिंता का विषय है कि जब लोग खून बहाने को तैयार हो जाते हैं, तो किसी भी सरकार के लिए यह समय होता है सोचने का कि क्या वह वास्तव में अपने नागरिकों की सुन रही है या नहीं।

यह कदम सरकार के लिए एक अलार्म था, जिसे नज़रअंदाज़ करना अब संभव नहीं है। सरकार को इस घातक चुप्पी को तोड़ना होगा, और बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दे पर तुरंत कार्रवाई करनी होगी। अगर सरकार अभी भी नहीं जागी, तो यह आंदोलन और भी बड़ा रूप ले सकता है।

महिलाओं पर अत्याचार: पुलिस द्वारा बर्बरता और अमानवीयता


राजस्थान के बेरोजगार युवाओं का आंदोलन जब शहीद स्मारक पर 72 दिनों तक लगातार जारी था, तो इसमें भाग लेने वाली महिलाओं ने अपनी आवाज़ को बुलंद किया। लेकिन जिस तरह से सरकार और पुलिस ने इस आंदोलन को दबाने के लिए हिंसा और क्रूरता का सहारा लिया, वह न केवल बेहद शर्मनाक था, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों का भी उल्लंघन था।

सबसे भयावह और अमानवीय घटना तब सामने आई, जब प्रदर्शनकारियों ने कृषि मंत्री किरोड़ी लाल मीणा के घर के बाहर धरना देने का निर्णय लिया। पुलिस ने बेरहमी से प्रदर्शनकारियों को खदेड़ा और महिलाओं को बर्बरतापूर्वक गाड़ियों में ठूसकर जंगल में छोड़ दिया। यह घटना केवल पुलिस की बर्बरता का प्रतीक नहीं थी, बल्कि सरकार की पूरी संवेदनहीनता को भी उजागर करती है।

पुलिस की क्रूरता और महिलाओं की अस्मिता पर हमला:


यह घटना दर्शाती है कि जब सरकार अपने नागरिकों की आवाज़ को दबाने के लिए कोई भी कदम उठाने से पीछे नहीं हटती, तो वह किसी भी हद तक जा सकती है। महिलाओं को गाड़ियों में ठूसकर, उनका अपमान किया गया, और उन्हें निर्लज्ज रूप से जंगल में छोड़ दिया गया। यह न केवल महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा पर सीधा हमला था, बल्कि यह भी दर्शाता है कि सरकार के लिए लोकतांत्रिक आंदोलन और नागरिक अधिकारों की कोई कीमत नहीं रही।



यह घटनाएँ सीधे तौर पर सरकार की आलोचना करती हैं कि किस तरह वह अपने नागरिकों, विशेष रूप से महिलाओं, के अधिकारों की रक्षा करने में नाकाम रही। जब तक पुलिस और प्रशासन ऐसी बर्बरता को बढ़ावा देंगे, तब तक सरकार को यह समझना होगा कि यह एक खतरनाक परंपरा बन सकती है। महिलाओं के साथ ऐसा व्यवहार न केवल अमानवीय है, बल्कि यह समाज में सरकार की क्रूरता और संवेदनहीनता का प्रतीक भी बनता है।


यह पूछने का वक्त है—क्या सरकार को महिलाओं की अस्मिता की कोई अहमियत नहीं है? क्या किसी भी आंदोलन में महिलाओं के साथ बर्बरता को सही ठहराया जा सकता है? जब सरकार अपने नागरिकों, खासकर महिलाओं, के साथ इस तरह का व्यवहार करती है, तो यह लोकतंत्र और मानवाधिकार के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन है।

यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस तरह के अत्याचारों की जांच करे, दोषियों को सजा दे, और सुनिश्चित करे कि भविष्य में महिलाओं के साथ ऐसा कोई व्यवहार न हो। महिलाओं पर किए गए इस अत्याचार को नज़रअंदाज़ करना सरकार के लिए एक बड़ी गलती होगी, और इसे तत्काल सुधारने की जरूरत है।



किरोड़ी लाल मीणा के बयान वर्तमान में "अपनों ने मारा है" और पूर्व में कांग्रेस द्वारा भेजे गए लोग राजनीति का असर और कांग्रेस पर आरोप:

राजस्थान के बेरोजगार युवाओं का आंदोलन, जो 72 दिनों तक चला, सिर्फ एक संघर्ष नहीं था, बल्कि यह राज्य की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों को भी उजागर करता है। इस आंदोलन के दौरान, जब राज्य सरकार ने बेरोजगार युवाओं की आवाज़ को अनसुना किया, तब राजनीतिक बयानबाजी और आरोपों का दौर भी शुरू हो गया।

कृषि मंत्री किरोड़ी लाल मीणा का "अपनों ने मारा है" वाला बयान इस आंदोलन के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। यह बयान इस समय दिया गया हैं जब उनके भाई, जो उपचुनाव में विधायक प्रत्याशी थे और चुनाव हार गए इस हार के बाद किरोड़ी लाल मीणा ने "अपनों ने मारा है" के रूप में एक बयान दिया, जो उनके व्यक्तिगत और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की ओर इशारा करता था।

राजनीतिक आरोप और कांग्रेस का नाम:


इस बयान से पहले, आंदोलन के दौरान किरोड़ी लाल मीणा और उनकी पार्टी के नेताओं ने यह आरोप लगाए थे कि यह आंदोलन कांग्रेस द्वारा प्रायोजित था और इसमें भाग लेने वाले लोग कांग्रेस के एजेंट थे। इस आरोप के तहत यह दावा किया गया था कि कांग्रेस पार्टी बेरोजगार युवाओं का उपयोग अपनी राजनीतिक रणनीति के तहत कर रही थी।

एक बयान अपनों ने मारा वाला हालिया बयान हैं जो कि एक साल बाद उनके भाई की हार के बाद आए। मीणा ने यह बयान इस उद्देश्य से दिया कि वह हार के बाद अपनी असफलता को किसी और पर डाल सकें और यह दिखा सकें कि उनके परिवार और पार्टी के खिलाफ साजिश की जा रही थी। हालांकि देखा जाए तो युवा मित्रो के प्रदेश अध्यक्ष ओर प्रदेश महासचिव वह के स्थानीय थे जहां से किरोड़ी लाल के भाई चुनावी मैदान में थे

आंदोलनकारियों की पीड़ा और सरकार की असंवेदनशीलता:


यह बयान उस समय एक बड़ी राजनीतिक घटना बन गया जब बेरोजगार युवाओं का आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था। जबकि युवा अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर संघर्ष कर रहे थे, उस समय मीणा का यह कहना कि "यह तो कांग्रेस द्वारा भेजे गए लोग हैं", उनकी समस्याओं और संघर्षों को हल्के में लेने जैसा था। यह बयान उस गहरे दुख और पीड़ा को नजरअंदाज कर रहा था, जो युवा आंदोलनकारियों के दिलों में था।

युवाओं की आवाज़ को दबाने के बजाय, सरकार और उसके नेताओं को युवा मित्रों समस्याओं का समाधान ढूंढना चाहिए था, न कि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का शिकार बनाना चाहिए था।



किरोड़ी लाल मीणा का "अपनों ने मारा है" वाला बयान एक साल बाद उनके भाई की हार पर आया और यह राजनीतिक आरोपों का हिस्सा था। यह बयान न केवल उनके व्यक्तिगत गुस्से का प्रतीक था, बल्कि सरकार की संवेदनहीनता और बेरोजगार युवाओं के संघर्ष को अनदेखा करने का एक उदाहरण था।

राजनीति में अपनी हार को छुपाने और दूसरे पर आरोप लगाने से युवाओं के वास्तविक मुद्दे हल नहीं होते। इसने केवल सरकार की असंवेदनशीलता और जनहित की उपेक्षा को उजागर किया।

सरकार की चुप्पी - लोकतंत्र की नींव को चुनौती


राजस्थान के बेरोजगार युवाओं का ऐतिहासिक आंदोलन और सरकार की चुप्पी, लोकतंत्र के मूल्यों और नागरिकों के अधिकारों पर गहरा सवाल उठाती है। यह आंदोलन केवल बेरोजगारी के खिलाफ संघर्ष नहीं था, बल्कि यह लोकतंत्र के उन मूल सिद्धांतों पर हमला था, जिनके तहत सरकार को जनता की आवाज़ सुननी चाहिए और उनकी समस्याओं का समाधान करना चाहिए। 72 दिनों तक चलने वाला यह आंदोलन सरकार की चुप्पी और उसके संवेदनहीन रवैये का प्रतीक बन गया।

सरकार का चुप रहना - लोकतंत्र के लिए खतरा:


जब जनता सड़कों पर उतरकर अपने अधिकारों की मांग करती है, तो यह एक स्वस्थ लोकतंत्र का हिस्सा है। लेकिन जब सरकार जनता के सवालों से मुँह मोड़ लेती है, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को चोट पहुँचाने जैसा होता है। राजस्थान में बेरोजगार युवाओं ने जिस तरीके से अपनी मांगें उठाईं, उन्हें दरकिनार करना और आंदोलनकारियों की आवाज़ को अनसुना करना, यह सरकार के प्रति विश्वास की बड़ी चोट थी।

सरकार का चुप रहना केवल इस बात का संकेत नहीं था कि उसे युवाओं के मुद्दे से कोई सरोकार नहीं था, बल्कि यह एक गंभीर चेतावनी भी थी कि सत्ता में बैठे लोग अब अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ चुके हैं। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनावों तक सीमित नहीं होना चाहिए, यह लोगों की समस्याओं और उनके अधिकारों के प्रति जवाबदेही की भी बात करता है।

वादा करके मुकर जाना - सरकार की संवेदनहीनता:


राजस्थान की सरकार ने बेरोजगारी की समस्या को हल करने का वादा किया था, लेकिन जब इन युवाओं ने अपनी मांगों को लेकर आवाज़ उठाई, तो सरकार ने पूरी तरह से चुप्पी साध ली। यह कोई साधारण चुप्पी नहीं थी, बल्कि यह उन युवाओं की पीड़ा और संघर्षों के प्रति सरकार की पूरी असंवेदनशीलता का प्रतीक थी। सरकार की चुप्पी ने यह सवाल उठाया: क्या सरकार ने अपने वादों को चुनावी जुमले की तरह इस्तेमाल किया था?

यह चुप्पी सरकार के उन सभी फैसलों को भी खारिज करती है जो उन्होंने बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिए किए थे। यह भी दर्शाता है कि जब जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती है, तो सत्ता में बैठे लोग अपनी राजनीतिक स्वार्थीता को प्राथमिकता देते हैं, न कि जनता के कल्याण को।

जनता की आवाज़ दबाना - लोकतंत्र की पराजय:


एक लोकतांत्रिक सरकार का पहला दायित्व जनता की समस्याओं को सुनना और उनका समाधान करना है। जब सरकार अपनी चुप्पी से यह संदेश देती है कि वह जनता की आवाज़ को अनदेखा कर सकती है, तो यह लोकतंत्र की पूरी प्रणाली पर सवाल उठाता है। जब जनता अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरती है, तो यह सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह उनके मुद्दों पर ध्यान दे, उनके साथ संवाद करे, और उनका समाधान निकाले। लेकिन जब सरकार चुप रहती है, तो यह न केवल सरकार की असफलता को दर्शाता है, बल्कि लोकतंत्र के सिद्धांतों के खिलाफ भी एक गंभीर उल्लंघन है।

संविधान और नागरिक अधिकारों का उल्लंघन:


यह चुप्पी एक और महत्वपूर्ण सवाल खड़ा करती है: क्या सरकार संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए अधिकारों का सम्मान करती है? भारत का संविधान नागरिकों को शांतिपूर्ण तरीके से अपनी आवाज़ उठाने का अधिकार देता है। जब सरकार इस अधिकार को नज़रअंदाज़ करती है और जनता की आवाज़ को दबाने की कोशिश करती है, तो यह लोकतंत्र की नींव को कमजोर करता है।



राजस्थान के बेरोजगार युवाओं का आंदोलन और सरकार की चुप्पी, यह दर्शाता है कि जब लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ती हैं, तो जनता की उम्मीदें टूटती हैं। सरकार की चुप्पी ने यह साबित कर दिया कि सत्ता में बैठे लोग केवल अपनी राजनीति और चुनावी फायदे के लिए काम कर रहे हैं, न कि जनता के कल्याण के लिए। यह स्थिति लोकतंत्र की नींव को चुनौती देती है और भविष्य में ऐसी घटनाओं से लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए एक मजबूत लोकतांत्रिक संरचना की आवश्यकता को रेखांकित करती है।

युवाओं का संदेश - आंदोलन का अंत नहीं, संघर्ष जारी रहेगा


राजस्थान में बेरोजगार युवाओं का ऐतिहासिक आंदोलन, जो 72 दिनों तक चला, केवल एक संघर्ष नहीं था, बल्कि यह एक संदेश था जो न केवल सरकार, बल्कि पूरे समाज और राजनीति को गहरे रूप से प्रभावित करने वाला था। यह आंदोलन खत्म हुआ, लेकिन इसके पीछे का संदेश अब भी जिंदा है: आंदोलन का अंत नहीं, संघर्ष जारी रहेगा।

युवाओं का संघर्ष: अधिकारों के लिए एक निरंतर यात्रा


जब बेरोजगारी और असमानता के खिलाफ आवाज़ उठाने की बात आती है, तो यह सिर्फ एक मौके पर किया गया प्रयास नहीं होता। यह एक निरंतर संघर्ष है। राजस्थान के बेरोजगार युवाओं ने यह साबित कर दिया कि वे केवल अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग नहीं हैं, बल्कि वे ऐसी आवाज़ हैं जो कभी नहीं चुप होगी। सरकार ने भले ही इस आंदोलन को दबाने की पूरी कोशिश की, लेकिन यह संघर्ष सिर्फ इस आंदोलन तक सीमित नहीं रहेगा।

यह आंदोलन समाप्त होने का नाम नहीं लेता, क्योंकि युवाओं की पीड़ा और उनके अधिकारों की लड़ाई अब एक आदर्श बन चुकी है। यह संदेश केवल राजस्थान तक ही सीमित नहीं, बल्कि पूरे देश के बेरोजगार युवाओं के लिए एक प्रेरणा बन गया है। जब सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ती है, तो जनता अपनी आवाज़ और संघर्ष को नए तरीके से आगे बढ़ाती है।

आंदोलन का एक मजबूत संदेश: आत्मनिर्भर और समान अधिकारों की आवश्यकता


युवाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे किसी भी सरकार की उदासीनता को बर्दाश्त नहीं करेंगे। उनके लिए यह केवल एक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह उनकी जीविका, उनके भविष्य और उनके सपनों की रक्षा का संघर्ष था। उनका यह संदेश सीधे तौर पर सरकार को यह बताने के लिए था कि जब तक उनके अधिकारों की रक्षा नहीं होगी, तब तक यह संघर्ष थमने वाला नहीं है। यह एक लंबी और कठिन यात्रा हो सकती है, लेकिन उनका उत्साह और समर्पण यह साबित करता है कि वे कभी हार मानने वाले नहीं हैं।

आंदोलन का एक और महत्वपूर्ण संदेश था कि बेरोजगारी केवल एक आर्थिक समस्या नहीं है, बल्कि यह समाज के युवाओं के आत्मसम्मान, उनके सपनों और उनके भविष्य से जुड़ी एक गंभीर समस्या है। इन युवाओं ने साबित कर दिया कि वे आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं और उनके पास समान अवसर और अधिकार होना चाहिए। यह सिर्फ उनके व्यक्तिगत भविष्य की बात नहीं, बल्कि पूरे समाज और राष्ट्र की प्रगति की बात है।

युवाओं का आक्रोश: असंवेदनशील सरकार को चुनौती


युवाओं का आक्रोश अब भी जीवित है। यह आक्रोश उस असंवेदनशीलता के खिलाफ है, जो सरकार ने उनके संघर्ष और उनके अधिकारों को नकारा। युवाओं ने यह समझा दिया कि अगर सरकार अपनी चुप्पी और नकारात्मकता को जारी रखती है, तो यह आक्रोश और भी बढ़ेगा। आंदोलन के दौरान जितना दबाव सरकार पर डाला गया था, उतना ही यह दबाव अब हर उस संस्थान और नेता पर बढ़ेगा, जो अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। यह आंदोलन अब एक चेतावनी बन चुका है कि यदि सरकार बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दों पर ध्यान नहीं देती, तो जनता का गुस्सा और बढ़ेगा।

आंदोलन का महत्व: राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की ओर एक कदम


यह आंदोलन एक नया अध्याय खोलने की दिशा में था, जिसमें युवाओं ने यह साबित किया कि वे केवल विरोध नहीं करते, बल्कि वे अपने भविष्य और राष्ट्र की प्रगति के लिए एक सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास करते हैं। यह आंदोलन अब केवल एक विरोध प्रदर्शन नहीं रहा, बल्कि यह एक आंदोलन बन चुका है जो युवाओं को संगठित करने और उन्हें आवाज़ देने के लिए प्रेरित करता है।

युवाओं का संदेश स्पष्ट था: यह संघर्ष कभी खत्म नहीं होगा। यह तब तक जारी रहेगा जब तक सरकार अपने वादों को पूरा नहीं करती, बेरोजगारी का समाधान नहीं निकलता, और युवाओं को समान अवसर नहीं मिलते।

 संघर्ष जारी रहेगा, सरकार को जवाब देना होगा


युवाओं ने इस आंदोलन के माध्यम से यह साफ कर दिया है कि उनका संघर्ष केवल एक समय विशेष तक सीमित नहीं होगा। उनका आंदोलन, उनका संघर्ष और उनका संदेश हर युवा के दिल में गूंजेगा। यह आंदोलन अब केवल एक चरण नहीं रहा, बल्कि यह एक निरंतर चलने वाली यात्रा बन गई है जो आने वाले समय में और भी बड़े बदलाव की ओर ले जाएगी।

सरकार को यह समझना होगा कि जनता और खासकर युवाओं की आवाज़ को दबाना अब और संभव नहीं है। यदि सरकार अभी भी अपनी असंवेदनशीलता को जारी रखती है, तो यह आंदोलन और भी अधिक ताकत से उभरेगा, और तब सरकार को इसका सामना करना होगा। यह आंदोलन और संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक युवाओं को उनके अधिकार, रोजगार और समान अवसर नहीं मिल जाते।

सरकार को क्या करना चाहिए - बेरोजगारी और प्रशासनिक सुधार की जरूरत


राजस्थान में बेरोजगार युवाओं का 72 दिनों तक चला ऐतिहासिक आंदोलन यह साबित करता है कि बेरोजगारी और प्रशासनिक सुधारों के बिना सामाजिक और आर्थिक प्रगति संभव नहीं है। यह आंदोलन न केवल सरकार की उदासीनता और असंवेदनशीलता को उजागर करता है, बल्कि यह यह भी बताता है कि युवाओं की आवाज़ को अनदेखा करना लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है। अब समय आ गया है कि सरकार न केवल बेरोजगारी को हल करने के लिए ठोस कदम उठाए, बल्कि प्रशासनिक ढांचे में सुधार भी करे ताकि युवाओं को उनके हक मिल सके।



बेरोजगारी राजस्थान की सबसे बड़ी और जटिल समस्याओं में से एक है। यह सिर्फ आर्थिक संकट नहीं है, बल्कि यह सामाजिक तनाव, असंतोष और युवा पीढ़ी के भविष्य को प्रभावित करने वाली गंभीर समस्या है। सरकार को सबसे पहले बेरोजगारी से निपटने के लिए दीर्घकालिक नीतियों का निर्माण करना चाहिए।

यह नीतियां न केवल रोजगार सृजन पर आधारित होनी चाहिए, बल्कि इनकी प्राथमिकता युवाओं की आवश्यकताओं को समझते हुए विकसित की जानी चाहिए। राज्य सरकार को बेरोजगारी भत्ते और अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को भी सुनिश्चित करना होगा ताकि जिन युवाओं को तत्काल रोजगार नहीं मिल सकता, उन्हें कुछ सहारा मिल सके। इसके अलावा, निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्रों में नौकरियों की संख्या बढ़ाने के लिए सख्त कदम उठाए जाने चाहिए।


बेरोजगारी का एक बड़ा कारण यह भी है कि युवाओं में पर्याप्त कौशल का अभाव है। राज्य सरकार को चाहिए कि वह कौशल विकास योजनाओं को अधिक प्रभावी बनाए, ताकि युवा सिर्फ शैक्षिक योग्यताओं के आधार पर न केवल सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करें, बल्कि उन्हें रोजगार के अवसरों के लिए तैयार किया जाए।

इसके लिए सरकारी और निजी क्षेत्र दोनों के साथ मिलकर साक्षात्कार और प्रशिक्षण केंद्रों का विस्तार किया जाए। इसके साथ ही, जो युवा व्यवसाय शुरू करना चाहते हैं, उन्हें वित्तीय सहायता और मार्गदर्शन भी प्रदान किया जाए, ताकि वे अपनी संभावनाओं को बेहतर तरीके से इस्तेमाल कर सकें।


प्रशासनिक सुधारों के बिना बेरोजगारी जैसे मुद्दों का समाधान संभव नहीं है। सरकार को अपने प्रशासनिक ढांचे में सुधार लाना होगा ताकि सरकारी नौकरियों के लिए चयन प्रक्रिया पारदर्शी और निष्पक्ष हो। भ्रष्टाचार, nepotism (परिवारवाद), और गैरकानूनी तरीके से नियुक्तियाँ, जो इस समय सरकारी नौकरी की प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं, उन्हें पूरी तरह से समाप्त किया जाना चाहिए।

सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि चयन प्रक्रिया में कोई भी भेदभाव या अनुशासनहीनता न हो। युवाओं को यह विश्वास दिलाना होगा कि सरकारी नौकरियों में उन्हें उनके अधिकार के अनुसार स्थान मिलेगा, न कि किसी राजनीतिक या व्यक्तिगत पक्षपाती नीति के आधार पर।


राजीव गांधी युवा मित्र योजना जैसे रोजगार सृजन कार्यक्रमों का उद्देश्य बेरोजगारी को कम करना था, लेकिन इन योजनाओं का उचित कार्यान्वयन और संचालन बहुत महत्वपूर्ण है। सरकार को चाहिए कि वह मौजूदा योजनाओं का पुनः मूल्यांकन करे, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे युवा वर्ग की वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा कर रही हैं। इसके साथ ही, योजनाओं के कार्यान्वयन में पारदर्शिता और नियमित निगरानी की व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि किसी भी प्रकार की अनियमितताएं या लापरवाही को रोका जा सके।


यह आंदोलन यह दर्शाता है कि सरकार ने अपने युवाओं की आवाज़ को गंभीरता से नहीं लिया। सरकार को यह समझना होगा कि यह आंदोलन एक चेतावनी है। अगर युवाओं की आवाज़ को अनसुना किया जाता है, तो यह एक और बड़ी समस्या का रूप ले सकता है।

युवाओं के प्रतिनिधियों से नियमित संवाद स्थापित करना और उनकी समस्याओं पर ध्यान देना आवश्यक है। इसके लिए एक स्थायी समिति या मंच बनाया जा सकता है, जो युवाओं के मुद्दों पर सरकार से चर्चा कर सके और त्वरित समाधान पा सके। यह एक सकारात्मक कदम होगा, जिससे युवाओं का विश्वास सरकार पर बढ़ेगा और वे आंदोलन के बजाय सकारात्मक तरीके से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे।

महिलाओं के साथ हुए दुर्व्यवहार पर माफी और सख्त कार्रवाई


यह आंदोलन, खासकर प्रदर्शन के दौरान महिलाओं के साथ हुए दुर्व्यवहार ने यह साबित किया कि सरकार और प्रशासन की संवेदनहीनता की कोई सीमा नहीं है। महिलाओं के साथ पुलिस द्वारा की गई बर्बरता और अमानवीय व्यवहार को नकारा नहीं जा सकता। सरकार को इस घटना पर त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए।

यह जरूरी है कि दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की गारंटी दी जाए। सरकार को महिलाओं के खिलाफ किए गए इस अमानवीय व्यवहार के लिए माफी मांगनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों।

 युवाओं की उम्मीदों के साथ समझौता न करें

युवाओं ने अपनी उम्मीदों और भविष्य को लेकर जो संघर्ष किया है, उसकी कीमत उन्हें अपनी गरिमा और आत्मसम्मान को दांव पर लगाकर चुकानी पड़ी है। सरकार को यह समझना होगा कि जब युवा अपने अधिकारों के लिए इतनी ताकत से खड़े होते हैं, तो वह केवल अपनी भलाई नहीं, बल्कि देश के भविष्य की लड़ाई भी लड़ते हैं।

युवाओं के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता। उन्हें उनके हक मिलना चाहिए और उनकी समस्याओं का समाधान त्वरित रूप से किया जाना चाहिए। यह केवल राज्य सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि पूरी शासन व्यवस्था की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह युवाओं को एक सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर प्रदान करें।


राजस्थान में बेरोजगारी और प्रशासनिक सुधार के लिए जो कदम उठाए जाने चाहिए, वे सिर्फ युवाओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए नहीं हैं, बल्कि यह राज्य और देश के भविष्य की ओर उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम होगा। यदि सरकार अब भी गंभीर नहीं होती, तो बेरोजगारी और प्रशासनिक सुधार की समस्या और भी गंभीर हो सकती है। सरकार को तत्काल प्रभाव से ठोस कदम उठाने होंगे ताकि यह आंदोलन और संघर्ष पूरी तरह से खत्म हो सके और युवाओं को उनके अधिकार मिल सकें।

राजस्थान के बेरोजगार युवाओं का 72 दिन लंबा आंदोलन सिर्फ एक संघर्ष नहीं, बल्कि एक जागरूकता है कि सरकार को अपने कर्तव्यों को समझना होगा। इस आंदोलन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जब सरकार की नीतियां और योजनाएं लागू नहीं होतीं, तो जनता का गुस्सा कभी शांत नहीं होता। यह आंदोलन एक चेतावनी है कि जब तक बेरोजगारी का समाधान नहीं होगा, तब तक युवा चुप नहीं बैठेंगे। सरकार के पास युवाओं के लिए उम्मीदों को फिर से जागृत करने का मौका है, लेकिन यदि इसे अनदेखा किया गया, तो इसका परिणाम भविष्य में और भी बड़े आंदोलनों के रूप में सामने आ सकता है।

युवाओं ने न केवल अपनी नौकरी खोई, बल्कि अपने सपनों और भविष्य को भी जोखिम में डाला। जब सरकार रोजगार देने का वादा करती है, लेकिन बेरोजगार युवाओं को सड़क पर ले आती है, तो यह लोकतंत्र की नींव को चुनौती देने जैसा है। 72 दिन का संघर्ष केवल एक संख्या नहीं है, बल्कि यह उन लाखों युवाओं की आवाज है, जिनकी उम्मीदें टूट चुकी हैं।

युवाओं ने जो भी प्रदर्शन किया, वह किसी से कम नहीं था। दंडवत, अर्धनग्न प्रदर्शन, मुर्गा बनकर प्रदर्शन, मुंडन और खून से पत्र लिखने जैसी क्रियाएं सरकार को यह समझाने के लिए थीं कि उनकी आस्था और संघर्ष की सीमा अब खत्म हो चुकी है। यह सिर्फ प्रदर्शन नहीं, बल्कि सरकार की नीतियों और प्रशासन की संवेदनहीनता के खिलाफ एक तीव्र प्रतिक्रिया थी।

सरकार को अब यह समझना होगा कि जब तक युवाओं के मुद्दों का समाधान नहीं होगा, तब तक इन आंदोलनों का रुकना मुमकिन नहीं है। जब महिलाएं और बच्चे भी इस आंदोलन का हिस्सा बने, और फिर भी सरकार ने अपनी चुप्पी तोड़ी नहीं, तो यह साफ-साफ दिखाता है कि सरकार ने लोकतांत्रिक मूल्यों को नजरअंदाज किया है।

कृषि मंत्री किरोड़ी लाल मीणा का बयान, "मुझे सदा अपनों ने मारा है", एक ऐसा राजनीतिक बयान था, जिसने युवाओं के संघर्ष का मजाक उड़ाने की कोशिश की। जबकि ये युवाएं उसी राज्य के भविष्य का हिस्सा थे, और उनका हर कदम एक दिशा निर्देश था, सरकार को संदेश देने का। इसने और भी स्पष्ट कर दिया कि जब सरकार खुद अपने नागरिकों से संवाद स्थापित नहीं करती, तो यह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ जाता है।

अब सरकार के लिए एक अवसर है—वह युवाओं के अधिकारों का सम्मान करे, उनकी समस्याओं का समाधान करे और उन्हें बेरोजगारी के जाल से बाहर निकाले। बेरोजगारी के समाधान के लिए ठोस नीतियां बनाएं और उन नीतियों को लागू करें, जो युवाओं के भविष्य को सुरक्षित करें। साथ ही, प्रशासनिक सुधारों को सुनिश्चित कर, यह दिखाए कि वह सिर्फ चुनावी वादों तक सीमित नहीं है, बल्कि वह लोगों के मुद्दों पर गंभीरता से काम करता है।

यदि सरकार अब भी नहीं जागी और बेरोजगारी की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया, तो जनता का आक्रोश और भी तीव्र हो सकता है। यह आंदोलन केवल शुरुआत थी। यह संदेश हर सरकार के लिए है कि अगर वह लोकतंत्र में युवाओं की आवाज़ को दबाने की कोशिश करेगी, तो परिणाम बहुत खतरनाक हो सकते हैं। अब सरकार के पास मौका है—वह युवाओं के साथ खड़ा हो, उनके भविष्य को सुरक्षित करे, और लोकतंत्र की साख को बचाए।

4 टिप्पणियाँ

  1. Yuva mitron ko bahal karna chahiye
    Ek sal se berojgar hai

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  2. युवा मित्रों को बहाल करों!

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  3. राजीव गांधी युवा मित्रों को बहाल करना चाहिए राजस्थान सरकार ने युवा मित्रों को बेरोजगार कर अन्याय किया है !

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  4. युवा मित्रों को बहाल करना चाहिए
    इन गरीबो को सरकार परेशान कर रही है
    भजनलाल सरकार इन गरीबो को क्यों पार्टियो मे तोल रहे हो
    इनका रोजगार वापस दो🙏

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